Monday, October 28, 2019

संपादकीय : तुलसी के राम का नागरिकों को संदेश...




रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड के उत्तरार्द्ध में कम बोलने वाले,  पर काम में अधिक विश्वास रखने वाले गोस्वामी तुलसीदास के धीरोदात्त नायक तथा भारत के आदर्श पुरूषोत्तम राम ने अपने राज्य की प्रजा को संदेश दिया, जो नागरिकों की आचरण संहिता कहा जा सकता है।

राम ने कहा - " हे समस्त नागरवासियों! मेरी बात सुनो। वही मेरा सेवक है और बड़ा प्यार है, जो मेरी आज्ञा माने। बड़े भाग्य से तुमने यह मनुष्य शरीर पाया है। सब ग्रंथों ने कहा है कि शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधनों का भण्डार और मोक्ष का द्वार है। हे भाई! यह शरीर विषय - योग नहीं है और विषय भोग भी। "

अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य - शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को पलटकर विष ले लेते हैं।

जो मनुष्य ऐसा समाज पाकर भी भवसागर न तरे, वह कृतघ्न और मंदबुद्धि है तथा आत्महत्या करने वाले कि गति को प्राप्त होता है।

ज्ञान दुर्गम है। उसमें अनेक विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई सहारा नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पाता है। ज्ञान का मार्ग तलवार की धार के समान है। इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती है।

इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलाए, जिसके समीप जाते ही घमण्ड आदि पतंगे जल जाएँ। जब आत्म - अनुभव का सुंदर प्रकाश होता है।

तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है। जो उद्घाटन रहित, घर - विहीन, मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, वह दक्ष और विज्ञानी है। पर भक्तिरहित ज्ञान मुझे प्रिय नहीं है। वह रसहीन है। भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों  की खान है। परन्तु सत्संग के बिना प्राणी इसे नहीं पाते। सत्संगति ही संसार का जन्म - मरण चक्र का अंत करती है। मनुष्य को निश्चय ही सदैव कर्म में संलग्न रहना चाहिए।

विकर्म करने वाले से अकर्मण्य व्यक्ति खराब है, पर कर्म में उसे फलाशा से दूर रहना चाहिए, जिससे उसके अंदर राग - द्वेष न उत्पन्न हो। पर निश्चय ही कर्म करके प्रारब्ध की दिशा मोड़ सकता है। पर यदि वह प्रारब्ध को अपने अनुकूल न कर सके तो भी उसे दुःखी नहीं होना चाहिए। उसे दुःख - सुख, हर्ष - शोक, आशा - निराशा, जय - पराजय, सफलता - असफलता, गर्मी - सर्दी, प्रशंसा - निंदा में समभाव होना चाहिए।

हमें असंतों से दूर रहने में भलाई है। दुष्ट लोग धनी, सम्पन्न और शक्तिशाली हो सकते हैं। हमें उनसे लाभ की आशा हो सकती है, फिर भी हमें अपने लोभ का संवरण कर उनसे दूर रहना चाहिए।

आदर्श राज्य में राजा और प्रजा में कोई अंतर नहीं होता। वस्तुतः वे एक सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए यदि प्रजा उपयुक्त व्यक्तिगत धर्म का पालन करे, तो राज्य की स्वयमेव उन्नति होगी।

न किसी से शत्रुता, न लड़ाई - झगड़े करें, न आशा रखें, न भय ही करें। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं।

राम ने अंत मे कहा - " यह मैं हृदय में कुछ ममत्व लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति कहता हूँ और न इसमें कुछ बड़प्पन है। यदि मैं कुछ अनीति का उच्चारण करूँ तो भय भुलाकर मुझे रोक देना। सुनो और यदि तुम्हें अच्छी लगे तो उसे करो।"

यह भारत की महान परंपरा है। महाभारत के रचनाकार व्यास भी  भगवद्गीता में यह कहते हैं - " यदि तुम्हारी इच्छा हो, तभी इसे सुनो तथा अपनी इच्छानुसार इसका पालन करो।" अर्थात भारतीय वाङ्गमय में कोई भी विचार या उपदेश जोर - जबरदस्तीपूर्वक दूसरे पर लादा नहीं जाता है। वह श्रोता या पाठक के अपने स्वतंत्र निर्णय पर छोड़ दिया जाता है ताकि वह अपनी परिस्थिति अनुसार अपने जीवन में उसका कार्यान्वयन कर सके।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 51(क) में नागरिकों के मूल कर्त्तव्य उल्लिखित हैं। जो नागरिक के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में हैं तथा शासन द्वारा आरोपित नहीं किए जा सकते हैं। तुलसी के रामचरित मानस में वर्णित नागरिकों के कुछ कर्त्तव्य भारतीय संविधान में समांतर रूप में निम्न प्रकार निर्धारित हैं - :

अनुच्छेद 51 (क) : भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह -
  1.) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातत्व की भावना का निर्माण करें, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो।
2.) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार
3.) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों ।के उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें।

राम ने युद्धभूमि में विभीषण को समझाया कि जीवन की युद्धभूमि में विजय के लिए दूसरे प्रकार का ही संसाधन हीन रथ होता है। पराक्रम और धैर्य उस रथ के पहिए होते हैं। जबकि सच्चाई और नेक आचरण इसकी लहराती हुई ध्वजें और पताकाएँ होतीं हैं। शक्ति, विवेक, स्व नियंत्रण और उपकार इसके चार घोड़े हैं। जो कि क्षमा, दयालुता और मन की एकाग्रता रूपी रासियों से बाँधे जाते हैं। ईश्वर की पूजा उसका बुद्धि मान सारथी होता है। अनासक्ति उसका कवच है और संतोष उसकी शमशीर है, दयालुता उसकी कुल्हाड़ी है और कारण उसका प्रचंड बल्लम है और नरम पड़कर झुक जाना उसकी अत्यधिक बुद्धि मता है। एक शुद्ध और शांत मन उसका तरकश है, जो कि शांति, आत्मसंयम और धार्मिक प्रथाओं के तीरों से भरा हुआ है। अपने गुरु के प्रति सम्मान उसकी मजबूत ढाल है। इस धर्मपरायण रथ पर सवार होकर कोई भी संसार रूपी समर में विजयी हो सकता है।

इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास के प्रतिनिधि महाकाव्य रामचरितमानस से जो जीवन की अमृत धारा बहती है, उसमें मज्जन करके आज भी व्यक्ति जीवन में सफलता अर्जित कर सकता है तथा अपने जीवन एवं जगत को सुख - शांतिपूर्ण बना सकता है।

✒ डॉo प्रमोद कुमार अग्रवाल
    झाँसी बुन्देल खण्ड
  अंक : 1, अक्टूबर 2019



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